
दोहा:
शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूं प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम ॥
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
आदिनाथ भगवान को, मन मन्दिर में धार ॥
चौपाई:
जय जय आदिनाथ जिन के स्वामी, तीनकाल तिहूं जग में नामी।
वेष दिगम्बर धार रहे हो, कर्मों को तुम मार रहे हो ॥
हो सर्वज्ञ बात सब जानो, सारी दुनिया को पहचानो ।
नगर अयोध्या जो कहलाये, राजा नभिराज बतलाये ॥
मरूदेवी माता के उदर से, चैतबदी नवमी को जन्मे ।
तुमने जग को ज्ञान सिखाया, कर्मभूमी का बीज उपाया ॥
कल्पवृक्ष जब लगे बिछरने, जनता आई दुखडा कहने ।
सब का संशय तभी भगाया, सूर्य चन्द्र का ज्ञान कराया ॥
खेती करना भी सिखलाया, न्याय दण्ड आदिक समझाया ।
तुमने राज किया नीती का सबक आपसे जग ने सीखा ॥
पुत्र आपका भरत बतलाया, चक्रवर्ती जग में कहलाया ।
बाहुबली जो पुत्र तुम्हारे, भरत से पहले मोक्ष सिधारे ॥
सुता आपकी दो बतलाई, ब्राह्मी और सुन्दरी कहलाई ।
उनको भी विध्या सिखलाई, अक्षर और गिनती बतलाई ॥
इक दिन राज सभा के अंदर, एक अप्सरा नाच रही थी ।
आयु बहुत बहुत अल्प थी, इस लिय आगे नही नाच सकी थी ॥
विलय हो गया उसका सत्वर, झट आया वैराग्य उमड़ कर ।
बेटों को झट पास बुलाया, राज पाट सब में बटवाया ॥
छोड़ सभी झंझट संसारी, वन जाने की करी तैयारी ।
राजा हजारो साथ सिधाए, राजपाट तज वन को धाये ॥
लेकिन जब तुमने तप कीना, सबने अपना रस्ता लीना ।
वेष दिगम्बर तज कर सबने, छाल आदि के कपडे पहने ॥
भूख प्यास से जब घबराये, फल आदिक खा भूख मिटाये ।
तीन सौ त्रेसठ धर्म फैलाये, जो जब दुनिया में दिखलाये ॥
छः महिने तक ध्यान लगाये, फिर भोजन करने को धाये ।
भोजन विधि जाने न कोय, कैसे प्रभु का भोजन होय ॥
इसी तरह चलते चलते, छः महिने भोजन को बीते ।
नगर हस्तिनापुर में आये, राजा सोम श्रेयांस बताए ॥
याद तभी पिछला भव आया, तुमको फौरन ही पडगाया ।
रस गन्ने का तुमने पाया, दुनिया को उपदेश सुनाया ॥
तप कर केवल ज्ञान पाया, मोक्ष गए सब जग हर्षाया ।
अतिशय युक्त तुम्हारा मन्दिर, चांदखेड़ी भंवरे के अंदर ॥
उसको यह अतिशय बतलाया, कष्ट क्लेश का होय सफाया ।
मानतुंग पर दया दिखाई, जंजिरे सब काट गिराई ॥
राजसभा में मान बढाया, जैन धर्म जग में फैलाया ।
मुझ पर भी महिमा दिखलाओ, कष्ट भक्त का दूर भगाओ ॥
सोरठा:
पाठ करे चालीस दिन, नित चालीस ही बार, चांदखेड़ी में आयके, खेवे धूप अपार ।
जन्म दरिद्री होय जो, होय कुबेर समान, नाम वंश जग में चले, जिसके नही संतान ॥
॥ इति आदिनाथ चालीसा समाप्त ॥